Sanskrit Subhashitani with Hindi Meaning | संस्कृत सुभाषितानि हिंदी भावार्थ सहित

Sanskrit Subhashitani

Sanskrit Subhashitani with Hindi Meaning : अगर आपको संस्कृत भाषा से लगाव है और आप संस्कृत सुभाषितानि संस्कृत अर्थ सहित जानना चाहते है तो यहाँ इस लेख में आपको संस्कृत सुभाषितानि हिंदी भावार्थ सहित उपलब्ध कराएँगे।

Sanskrit Subhashitani with Hindi Meaning

(1)

अग्निशेषमृणशेषं शत्रुशेषं तथैव च ।
पुन: पुन: प्रवर्धेत तस्माच्शेषं न कारयेत् ॥

भावार्थ : यदि कोई आग, ऋण, या शत्रु अल्प मात्रा अथवा न्यूनतम सीमा तक भी अस्तित्व में बचा रहेगा तो बार बार बढ़ेगा ; अत: इन्हें थोड़ा सा भी बचा नही रहने देना चाहिए । इन तीनों को सम्पूर्ण रूप से समाप्त ही कर डालना चाहिए ।

(2)

नाभिषेको न संस्कार: सिंहस्य क्रियते मृगैः ।
विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ॥

भावार्थ : वन्य जीव शेर का राज्याभिषेक (पवित्र जल छिड़काव) तथा कतिपय कर्मकांड के संचालन के माध्यम से ताजपोशी नहीं करते किन्तु वह अपने कौशल से ही कार्यभार और राजत्व को सहजता व सरलता से धारण कर लेता है

(3)

उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति,कार्याणि न मनोरथै।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य,प्रविशन्ति मृगाः॥

भावार्थ : प्रयत्न करने से ही कार्य पूर्ण होते हैं, केवल इच्छा करने से नहीं, सोते हुए शेर के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते हैं।

(4)

विद्वत्वं च नृपत्वं च न एव तुल्ये कदाचन्।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥

भावार्थ : विद्वता और राज्य अतुलनीय हैं, राजा को तो अपने राज्य में ही सम्मान मिलता है पर विद्वान का सर्वत्र सम्मान होता है|

(5)

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
मूढै: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा प्रदीयते ॥

भावार्थ : पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं जल अन्न और अच्छे वचन ।
फिर भी मूर्ख पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहते हैं ।

(6)

पातितोऽपि कराघातै-रुत्पतत्येव कन्दुकः।
प्रायेण साधुवृत्तानाम-स्थायिन्यो विपत्तयः॥

भावार्थ : हाथ से पटकी हुई गेंद भी भूमि पर गिरने के बाद ऊपर की ओर उठती है, सज्जनों का बुरा समय अधिकतर थोड़े समय के लिए ही होता है।

(7)

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियं।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः॥

भावार्थ : सत्य बोलें, प्रिय बोलें पर अप्रिय सत्य न बोलें और प्रिय असत्य न बोलें, ऐसी सनातन रीति है ॥

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(8)

मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥

भावार्थ : मूर्खों के पाँच लक्षण हैं – गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बातों का अनादर॥

(9)

अतितॄष्णा न कर्तव्या तॄष्णां नैव परित्यजेत्।
शनै: शनैश्च भोक्तव्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम् ॥

भावार्थ : अधिक इच्छाएं नहीं करनी चाहिए पर इच्छाओं का सर्वथा त्याग भी नहीं करना चाहिए। अपने कमाये हुए धन का धीरे-धीरे उपभोग करना चाहिये॥

(10)

अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥

भावार्थ : आठ गुण पुरुष को सुशोभित करते हैं – बुद्धि, सुन्दर चरित्र, आत्म-नियंत्रण, शास्त्र-अध्ययन, साहस, मितभाषिता, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता ।

(11)

न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥

भावार्थ : कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है ।

(12)

क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।
क्षणत्यागे कुतो विद्या कणत्यागे कुतो धनम्॥

भावार्थ : क्षण-क्षण विद्या के लिए और कण-कण धन के लिए प्रयत्न करना चाहिए। समय नष्ट करने पर विद्या और साधनों के नष्ट करने पर धन कैसे प्राप्त हो सकता है ।

(13)

गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत् ।
वर्तमानेन कालेन वर्तयन्ति विचक्षणाः॥

भावार्थ : बीते हुए समय का शोक नहीं करना चाहिए और भविष्य के लिए परेशान नहीं होना चाहिए, बुद्धिमान तो वर्तमान में ही कार्य करते हैं।

(14)

क्षमा बलमशक्तानाम् शक्तानाम् भूषणम् क्षमा।
क्षमा वशीकृते लोके क्षमयाः किम् न सिद्ध्यति॥

भावार्थ : क्षमा निर्बलों का बल है, क्षमा बलवानों का आभूषण है, क्षमा ने इस विश्व को वश में किया हुआ है, क्षमा से कौन सा कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है ।

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(15)

आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।
नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ॥

भावार्थ : आयु का एक क्षण भी सारे रत्नों को देने से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, अतः इसको व्यर्थ में नष्ट कर देना महान असावधानी है ।

(16)

नारिकेलसमाकारा दृश्यन्तेऽपि हि सज्जनाः।
अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहराः॥

भावार्थ : सज्जन व्यक्ति नारियल के समान होते हैं, अन्य तो बदरी फल के समान केवल बाहर से ही अच्छे लगते हैं ।

(17)

नाभिषेको न संस्कार सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता॥

भावार्थ : कोई और सिंह का वन के राजा जैसे अभिषेक या संस्कार नहीं करता है, अपने पराक्रम के बल पर वह स्वयं पशुओं का राजा बन जाता है ।

(18)

यः पठति लिखति पश्यति परिपृच्छति पंडितान् उपाश्रयति।
तस्य दिवाकरकिरणैः नलिनी दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥

भावार्थ : जो पढ़ता है, लिखता है, देखता है, प्रश्न पूछता है, बुद्धिमानों का आश्रय लेता है, उसकी बुद्धि उसी प्रकार बढ़ती है जैसे कि सूर्य किरणों से कमल की पंखुड़ियाँ ।

(19)

विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मति:।
परलोके धनं धर्म शीलं सर्वत्र वै धनम्॥

भावार्थ : विदेश में विद्या धन है, संकट में बुद्धि धन है, परलोक में धर्म धन है और शील सर्वत्र ही धन है ।

(20)

प्रदोषे दीपकश्चंद्र प्रभाते दीपको रवि:।
त्रैलोक्ये दीपको धर्म सुपुत्र: कुलदीपक:॥

भावार्थ : शाम को चन्द्रमा प्रकाशित करता है, दिन को सूर्य प्रकाशित करता है, तीनों लोकों को धर्म प्रकाशित करता है और सुपुत्र पूरे कुल को प्रकाशित करता है ।

(21)

उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्।
सोत्साहस्य च लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम्॥

भावार्थ : उत्साह श्रेष्ठ पुरुषों का बल है, उत्साह से बढ़कर और कोई बल नहीं है। उत्साहित व्यक्ति के लिए इस लोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।

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(22)

उदये सविता रक्तो रक्त:श्चास्तमये तथा।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥

भावार्थ : उदय होते समय सूर्य लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल होता है, सत्य है महापुरुष सुख और दुःख में समान रहते हैं ।

(23)

दर्शने स्पर्शणे वापि श्रवणे भाषणेऽपि वा।
यत्र द्रवत्यन्तरङ्गं स स्नेह इति कथ्यते॥

भावार्थ : यदि किसी को देखने से या स्पर्श करने से, सुनने से या बात करने से हृदय द्रवित हो तो इसे स्नेह कहा जाता है ।

(24)

नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:।
नास्ति राग समं दुखं नास्ति त्याग समं सुखं॥

भावार्थ : विद्या के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है ।

(25)

व्यायामात् लभते स्वास्थ्यं दीर्घायुष्यं बलं सुखं।
आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम्॥

भावार्थ : व्यायाम से स्वास्थ्य, लम्बी आयु, बल और सुख की प्राप्ति होती है। निरोगी होना परम भाग्य है और स्वास्थ्य से अन्य सभी कार्य सिद्ध होते हैं ।

(26)

शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणां तथा ।
ऊहापोहोऽर्थ विज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः॥

भावार्थ : शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, चिंतन, उहापोह, अर्थविज्ञान, और तत्त्वज्ञान – ये बुद्धि के गुण हैं ।

(27)

निशानां च दिनानां च यथा ज्योतिः विभूषणम् ।
सतीनां च यतीनां च तथा शीलमखण्डितम् ॥

भावार्थ : जैसे प्रकाश, दिन और रात का भूषण है, वैसे अखंडित शील, सतीयों और यतियों का भूषण है ।

(28)

न मुक्ताभि र्न माणिक्यैः न वस्त्रै र्न परिच्छदैः ।
अलङ्कियेत शीलेन केवलेन हि मानवः ॥

भावार्थ : मोती, माणेक, वस्त्र या पहनावे से नहीं, पर केवल शील से हि इन्सान विभूषित होता है ।

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(29)

शौचानां परमं शौचं गुणानां परमो गुणः ।
प्रभावो महिमा धाम शीलमेकं जगत्त्रये ॥

भावार्थ : तीनों लोकों में एक शील ही परम् पवित्र चीझ, गुणों में श्रेष्ठ गुण, महिमा का धाम और प्रभाव है ।

(30)

विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मतिः ।
परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम् ॥

भावार्थ : विदेश में विद्या धन, संकट में मति धन, परलोक में धर्म धन होता है । पर, शील तो सब जगह धन है ।

(31)

कीटोऽपि सुमनःसंगादारोहति सतां शिरः ।
अश्मापि याति देवत्वं महद्भिः सुप्रतिष्ठितः ॥

भावार्थ : पुष्प के संग से कीडा भी अच्छे लोगों के मस्तक पर चढता है । बडे लोगों से प्रतिष्ठित किया गया पत्थर भी देव बनता है ।

(32)

सन्तोषः परमं सौख्यं सन्तोषः परममृतम् ।
सन्तोषः परमं पथ्यं सन्तोषः परमं हितम् ॥

भावार्थ : संतोष, यह परम् सौख्य, परम् अमृत, परम् पथ्य और परम् हितकारक है ।

(33)

सन्तोषः परमो लाभः सत्सङ्गः परमा गतिः ।
विचारः परमं ज्ञानं शमो हि परमं सुखम् ॥

भावार्थ : संतोष परम् बल है, सत्संग परम् गति है, विचार परम् ज्ञान है, और शम परम् सुख है ।

(34)

यावद्वित्तोपार्जनसक्तः तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे॥

भावार्थ : जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है ।

(35)

धॄतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥

भावार्थ : धर्म के दस लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, आत्म-नियंत्रण, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रिय-संयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ।

(36)

नलिनीदलगतजलमतितरलम् तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं लोक शोकहतं च समस्तम् ॥

भावार्थ : जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है ।

(37)

चित्तोद्वेगं विधायापि हरिर्यद्यत् करिष्यति ।
तथैव तस्य लीलेति मत्वा चिन्तां द्रुतं त्यजेत ॥

भावार्थ : चिंता और उद्वेग में संयम रख कर और ऐसा मान कर कि श्रीहरि जो जो भी करेंगे वह उनकी लीला मात्र है, चिंता को शीघ्र त्याग दें ।

(38)

यथा हि एकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्।
एवं पुरूषकारेण विना दैवं न सिध्यति ॥

भावार्थ : जिस प्रकार एक पहिये वाले रथ की गति संभव नहीं है, उसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना केवल भाग्य से कार्य सिद्ध नहीं होते हैं ।

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(39)

अभिवादनशीलस्य नित्यं वॄद्धोपसेविनः ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥

भावार्थ : विनम्र और नित्य अनुभवियों की सेवा करने वाले में चार गुणों का विकास होता है – आयु, विद्या, यश और बल ।

(40)

क्रोधो वैवस्वतो राजा तॄष्णा वैतरणी नदी।
विद्या कामदुघा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम् ॥

भावार्थ : क्रोध यमराज के समान है और तृष्णा नरक की वैतरणी नदी के समान। विद्या सभी इच्छाओं को पूरी करने वाली कामधेनु है और संतोष स्वर्ग का नंदन वन है ।

(41)

लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च।
लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति ॥

भावार्थ : लोभ पाप और सभी संकटों का मूल कारण है, लोभ शत्रुता में वृद्धि करता है, अधिक लोभ करने वाला विनाश को प्राप्त होता है ।

(42)

क्षमावशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते।
शान्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः।।

भावार्थ : क्षमा दुनिया का सबसे बड़ा वशीकरण है। क्षमा के साथ क्या नहीं किया जाता है? जिसके हाथ में क्षमा की तलवार है, दुष्ट उसका क्या कर सकता है?

(43)

सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः।
सत्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्।।

भावार्थ : पृथ्वी सत्य के द्वारा धारण की जाती है। सत्य से सूर्य तपता है और सत्य से वायु चलती है। सब कुछ सत्य में निहित है।

(44)

न संशयमनारूह्य नरो भद्राणि पश्यति।
संशयं पुनरारूह्य यदि जीवति पश्यति।।

भावार्थ : मनुष्य स्वयं को खतरे में डाले बिना विशिष्ट लाभ प्राप्त नहीं कर सकता, यदि वह खतरे से बच जाता है, तो वह उस लाभ का सुख भोगता है।

(45)

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् ।
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम् ।।

भावार्थ : कमाए हुए धन का त्याग करने से ही उसका रक्षण होता है. जैसे तालब का पानी बहते रहने से साफ रहता है।

(46)

सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम् ।
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम् ।।

भावार्थ : जो व्यक्ति सुख के पीछे भागता है उसे ज्ञान नही मिलेगा तथा जिसे ज्ञान प्राप्त करना है वह व्यक्ति सुख का त्याग करता है. सुख के पीछे भागने वाले को विद्या कैसे प्राप्त होगी ? तथा जिसको विद्या प्राप्त करनी है उसे सुख कैसे मिलेगा?

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मै निशांत सिंह राजपूत इस ब्लॉग का लेखक और संस्थापक हूँ, अगर मै अपनी योग्यता की बात करू तो मै MCA का छात्र हूँ.

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